



परमहंस शिव त्रिजटा अघोरी
सूर्य वंशी ठाकुर कुल के महानगरी कोलकाता के निवासी व उस समय के अग्रणी व्वसायी और सिंह एण्ड सिंह कंपनी के फाऊण्डर अरब पति श्रीमान गोपाल चन्द्र सिंह जी और माता मालती देवी ( प्रोफेसर कोलकाता महाविद्यालय, डबल एम.ए. ) के यहां १२अक्टुबर सन १९३८ बुधवार समय १:५५ दोपहर को एक शिशु का अवतरण हुआ, नामकरण किया गया और नाम रखा गया बिकास सिंह ।
शिशु बिकास सिंह ने अपनी मधुर, शांत मुस्कान और भाव विभोर करने वाली किलकारियों से सिंह दम्पत्ति के आंगन को सुमधुर आनंद से भर दिया ।
शिशु के जन्म लेते ही अनेकों योगी, ऋषियों, मुनियों और साधु संतों का सिंह दम्पत्ति के द्वार पर आवागमन शुरू हो गया , सिंह दम्पत्ति साधु-संतों को भोजन दक्षिणा आदि देते मगर सभी साधु-संत उनसे नवजात शिशु के दर्शन की अभिलाषा प्रकट करते, और कहते हम तो तुम्हारे बालक के दर्शन हेतु आए हैं ।
सिंह दम्पत्ति को बड़ा विस्मय हुआ और कौतूहल वश वह इसका कारण संतों से पूछते तो साधुगण कहते आपके यहां एक दिव्य आत्मा ने जन्म लिया है, सिंह दम्पत्ति के बड़े ही अनुनय-विनय से पूछने पर तब एक साधु ने बताया, आपके यहां सप्त ऋषियों में से एक का अवतरण आपके बालक के रूप में हुआ है ।
समय आने पर इनके गुरु स्वयं आकर इनका मार्ग दर्शन और सन्यास धारण कराएंगे , इनका जन्म कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है ।
अब यह सुनकर सिंह दम्पत्ति चिंतित रहने लगे कि इनका इकलौता पुत्र जिससे वह अपने वंश की बढ़ौतरी और अपने बिजनेस एम्पायर को सम्भालने की आशा कर रहे हैं वह तो सब कुछ त्याग सन्यासी हो जाएगा , उनका और उनके व्यवसाय का क्या होगा उनके बाद, इस उद्देश्य से वह बालक बिकास सिंह को हर सुख सुविधा, आनंद की वस्तु उपलब्ध कराते जिससे बालक का मन संसार में रमा रहे, विकास सिंह को ग्रेजुएशन और वकालत कराई गई ।
मगर बिकास सिंह का मन सांसारिक बातों में नहीं लगता था, वह तो अपनी ही धुन में मस्त रहता और साधु-संतों की संगत करता ।
एक दिन बिकास सिंह का सामना लार्ड डलहौजी क्षेत्र में महायोगी त्रिजटा अघोरी से हुआ, जैसे पूर्ण ने पूर्ण को पा लिया, पूर्ण से पूर्ण मिल पूर्ण ही होता है, वैसे ही यह गंगधारा समुंद्र में जा मिली और महागुरु गुरु त्रिजटा अघोरी के सानिध्य में कैलास मानसरोवर की यात्रा पर निकल पड़े ।
इसी बीच गुरू त्रिजटा अघोरी ने बिकास सिंह को अघोर पंथ में दिक्षित करते हुए बताया मुझे आपने निमित्त के लिए चुना है आप सप्त ऋषियों में से एक हैं और नाम दिया ” शिव ” व कहा अब आप शिव त्रिजटा अघोरी के नाम से प्रसिद्ध होंगे, आपका जीवन काल तीन सौ वर्षों का होगा ।
सन १९७६ में शिव त्रिजटा अघोरी अपने पैत्रक स्थान जोड़ासांको जोकि गुरु देव रवीन्द्रनाथ टैगोर ( ठाकुर जी ) की भी जन्म स्थली भी है, पर अपनी माता से भिक्षा प्राप्ति हेतु आए,
भिक्षाम् देहि कह माता से भिक्षा का आग्रह किया, माता अपने एक मात्र लाल को साधु वेश में भिक्षा मांगते हुए देख द्रवित हो रोनें लगी अपने चक्षुओं से अविरल अश्रुधारा की ओर इशारा कर मां मालती देवी कहने लगीं, बिकास कितना निष्ठुर हो गया है रे ।
तब यशस्वी पिता के बहुत समझाने पर माता ने अपने ही पुत्र की झोली में भिक्षा डाली और बिकास सिंह के सन्यासी नाम शिव त्रिजटा अघोरी को मान्यता मिली ।
माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपने बालक को विदा किया ।
तद उपरांत सन १९७९ में बीर भूमि अवस्थित और ऋषि मार्कण्डेय द्वारा स्थापित और मां तारा के अनन्य भक्त बामा खेपा की तपोस्थली में स्थित पंच मुण्ड़ी आसन पर तपस्या कर शून्य को प्राप्त किया ।
सन २००२ में सिद्ध आश्रम वासी योगेश्वरानंद जी द्वारा स्थापित नौ मुण्डी आसन पर साधना कर ज्ञान गंज आवागमन का मार्ग प्रशस्त किया ।
सन २००९ में सोमनाथ के महाश्मशान में भैरवी क्रिया सम्पन्न कर शिव तत्व से सायुज्य किया ।
यदि मैं चमत्करो की बात करुं तो यह अविस्मरणीय हैं :-
सन २०११ में नासिक के त्रयम्बकम् क्षेत्र में एक मृत बालक को जीवित कर सभी को विस्मित कर दिया ।
२०१३ में चेन्नई के शंकर पिल्लै के कैंसर को अपने शरीर में धारण कर रोग मुक्त किया ।
इसके बाद साधना के लिए पहाड़ों में कहीं अज्ञातवास में चलें गये और २०१६ में सांसारिक लोगों के मध्य आए व मुझे याद दिलाया कि मैं उनका पूर्व जन्म का मित्र और महायोगी त्रिजटा अघोरी का परमप्रिय शिष्य हूं ।
मैं कहां तक बखान करूं पेज छोटा पड जाएगा लिखते लिखते ।
२०२० से २०२२ तक ५१ शक्तिपीठों और १२ ज्योतिर्लिंगों का दर्शन किया और निरंतर साधना व भक्तों पर कृपा जारी है ।
जो अज्ञान तिमिर को दूर कर हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैलाते ह, उन्हें गुरु कहते हैं | ‘गिरती अज्ञानम , अथवा गृणाती ज्ञानम,स : गुरुः_ ऐसी गुरु शब्द की व्युत्पत्ति है | जीवों का अज्ञान मिटाने के लिए अथवा जीवों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए ही प्रायः गुरुदेव भगवान का अवतार हुवा है | इस अवतार की परिसमाप्ति नही है, इसलिए इन्हें अविनाशी भी कहते हैं, सिद्धों के राजा होने के कारण सिद्धराज हैं, योगविद्या के परमाचार्य होने के कारण योगिराज हैं | समस्त देवतावों का संरक्षण करने के कारण देवदेवेश्वर हैं, उनका उनमत्तो की तरह विचित्र वेश है , उनके आगे पीछे कुत्ते हैं , उन्हें पहचान लेना सरल नही ? वे महासिद्धो के भी परम गुरु हैं ।
उन्हें उच्चकोटि के अधिकारी पुरुष ही पहचान सकते हैं, जब वे स्वयम जनाना चाहे, किंतु उनके आराधक तो अपना जीवन धन्य कर ही लेते ह |
||जय घोर जय अघोर जय भवानी ||

"The soul can never be cut to pieces by any weapon, nor burned by fire, nor moistened by water, nor withered by the wind"
Kaalmukh
शैव संप्रदाय के संस्थापक लकुलीश थे. इन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है कालमुख संप्रदाय शिव के १८ अवतार में वर्णित हे जिसका उल्लेख स्कंद पुराण आयुर्वेद और शिव महापुराण में मिलता है । कालमुख संप्रदाय के लोग मूलतः मध्य यूगिन शैव संप्रदाय से संबंध रखते हे ।कुछ लोगों का मानना हे कालमुख संप्रदाय पशुपत संप्रदाय के एक शाखा हे पर ये पूर्णता गलत हे क्यों कि कालमुख संप्रदाय शिव का १८ अवतार हो वो किसका शाखा और प्रशाखा नि हो सकता काल मुख संप्रदाय के लोग अघोरियों का वो संप्रदाय हे जो समय के संग चलना और मृत्यु का सामना करना यही लक्स हे ये लोग यंत्र मुद्रा और मंत्र का उच्च कोटि पर मनन कर अस्तित्व पर लाते है। तिरु मंदिर के ६ विचार धारा में उदय अर्थात सूर्य के तरह चमक ने वाला काल मुख संप्रदाय है। ये लोग रूढ़ि बड़ी और कला जादू के विरोध में स्वयं का अस्तित्व को दिखा देते हैं। कर्नाटक के धारवाड़ और शिमोगा जिला में शक्ति परिषद और सिंघ परिषद दो भाग में विभाजित करते थे रामेंद्र नाथ नंदी के अनुसार ८०७ ईसापूर्व राष्ट्रकूट बांस द्वारा जारी रिकॉर्ड में काल मुख संप्रदाय का बर्मन मिलता हे । हालांकि आठवीं सत्तावादी में मैसूर में एक बहुत बड़ा काल मुख संप्रदाय का मठ विद्यमान हे । वैष्णव संप्रदाय के आचार्य रामानुज ने अपने पुस्तक श्री भाष्य कार्य में काल मुख संप्रदाय को कापालिकों के संग जोड़ कर भ्रमित किया ये सत्य हे काल मुख संप्रदाय। के आघोरी खोपड़ी में खान खाना और खोपड़ी में ही तरल पदार्थ का भक्षण किया करते हे रामानुज ने एक सत्य को अपने पुस्तक में दर्शाते हुए ये बताया कि काल मुख संप्रदाय के जो अघोरी होते हे वो श्मशान क्रिया के लिए क्षणिक रूप से श्मशान में प्रवेश करते हे और मुर्दों का मांस प्रसाद के रूप में ग्रहण करके अपने क्रिया को संपन्न कर निकल पड़ते हे" काल मुख एक मजबूत सामाजिक आधार वाले सामाजिक और धार्मिक सुधारों का आधुनिक सेब संप्रदाय का खोजी अघोरी हे " फिरबी कोई बरसो तक अर्जी भंडारकर जैसे विद्वानों ने कालमुख संप्रदाय के अघोरियों को कापालिकों की तुलना में अधिक चरम पंथी संप्रदाय माना जब की उन्होंने स्क्वायर किया रामानुज के लिखित विवरण भ्रमित करने वाला हे शीला लेखों में इसे अभिलेखों साक्ष्य का जो भी मिलता विवरण हे भंडार कर अन्य लोगों के द्वारा लिखित प्रमाण हे ।।

Siddhasram Gyanganj
तिब्बत धरती पर सबसे खूबसूरत और अछूते क्षेत्रों में से एक है। यह सुदूर क्षेत्र न केवल रोमांच प्रेमियों को बल्कि उन यात्रियों को भी आकर्षित करता है जो अपने जीवन में अस्तित्व के गहरे अर्थ को खोजने के उद्देश्य से निर्देशित होते हैं। पिछली शताब्दी तक रहस्य में डूबा और बेहद दुर्गम, तिब्बत अभी भी काफी हद तक अज्ञात और अनदेखा है और जो बात इस हिमालयी क्षेत्र को और भी दिलचस्प बनाती है, वह है इससे जुड़े विभिन्न मिथक और किंवदंतियाँ। ऐसे ही एक मिथक ने कई लोगों की दिलचस्पी को आकर्षित किया है, जिसके कारण कई तरह की बहसें, जाँच और किताबें लिखी गई हैं। ऐसी कौन सी चीजें या घटनाएँ हैं जो हैं? ऐसा क्यों है? ये सभी सवाल अभी भी प्रश्नचिह्न बने हुए हैं। आज हम हिमालय की घाटियों के एक ऐसे रहस्य का जिक्र करने जा रहे हैं जिसके सामने विज्ञान ने भी घुटने टेक दिए हैं। यहां हम ज्ञानगंज मठ के बारे में बात कर रहे हैं। यह हिमालय में स्थित एक छोटी सी जगह है जिसे शांगरी-ला, शम्भाला और सिद्धाश्रम के नाम से भी जाना जाता है। ज्ञानगंज मठ में केवल सिद्ध महात्माओं को ही स्थान मिलता है। इस जगह के बारे में कहा जाता है कि यहाँ रहने वाले हर व्यक्ति का भाग्य पहले से ही तय होता है और यहाँ रहने वाला हर व्यक्ति अमर है। यहाँ कोई नहीं मरता l आधुनिक समय में ज्ञानगंज तिब्बत में कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील के पास स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर एक आश्रम है, जिसका निर्माण परमहंस सच्चिदानंद जी ने कराया था। कहा जाता है कि यहां हजारों वर्षों से सैकड़ों ऋषियों को ध्यान करते देखा जा सकता है। परमहंस त्रिजटा अघोरी जी ने ही सबसे पहले लोगों को इस स्थान के बारे में जानकारी दी थी। शांगरी-ला एक तिब्बती शब्द है। जो शांग माउंटेन पास से मिलता जुलता है। इसलिए ऐसा लगता है कि यह स्थान कुनलुन शांग माउंटेन की घाटियों में कहीं स्थित है। शांगरी-ला घाटी का अनुमानित क्षेत्रफल 10 वर्ग किलोमीटर है। लांपियाधुरा दर्रा भारतीय सीमा से शांगरी-ला घाटी तक पहुंचने का मार्ग है। यह कैलाश मानसरोवर जाने का सबसे पुराना लेकिन बेहद कठिन मार्ग है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद लांपियाधुरा जाने का मार्ग लगभग बंद हो गया है। प्राचीन काल में कैलाश मानसरोवर जाने वाले साधु-संत उत्तराखंड के धारचूला, गुंजी, कुंती और पार्वती ताल से होते हुए करीब 18000 फीट की ऊंचाई चढ़कर लांपियाधुरा दर्रे तक पहुंचते थे। माना जाता है कि शांगरी-ला घाटी यानी ज्ञानगंज यहां से करीब 1500 फीट नीचे कैलाश मानसरोवर के तलहटी में स्थित है। लेकिन चौथे आयाम में होने के कारण इसे आम लोगों की नजर से परे माना जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि चीनी सेना ने कई बार इस स्थान को खोजने की कोशिश की लेकिन असफल रही। इस सिद्धाश्रम या मठ का उल्लेख महाभारत, वाल्मीकि रामायण और वेदों में भी मिलता है। अंग्रेजी लेखक जेम्स हिल्टन ने भी अपने उपन्यास 'लास्ट होराइजन' में इस स्थान का जिक्र किया है। प्राचीन ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार, ज्ञानगंज आठ पंखुड़ियों वाले कमल की संरचना जैसा दिखता है।वैदिक मान्यता के अनुसार ज्ञानगंज के योगी जो कलमुख संप्रदाय से होंगे पृथ्वी पर 85 ऐसे तत्वों के निर्माण में लगे हैं जो भविष्य में ज्ञानगंज के उस कमल कुंज को पृथ्वी पर ज्ञानगंज के उद्देश्य को पूर्ण करेंगेl यह बर्फ से ढके पहाड़ों से घिरा हुआ है। जीवन का वृक्ष जो स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल को जोड़ता है, इसके केंद्र में खड़ा है। जिन लोगों ने ज्ञानगंज या शम्भाला देखा है, उनके लिए यह एक जगमगाता हुआ शहर है। इसके निवासी अमर हैं जो दुनिया के भाग्य का मार्गदर्शन करने के लिए जिम्मेदार हैं। इस रहस्यमय साम्राज्य के भीतर रहते हुए वे सभी धर्मों और मान्यताओं की आध्यात्मिक शिक्षाओं की रक्षा और पोषण करते हैं। दूसरों को अपना ज्ञान देकर वे मानव जाति के भाग्य को अच्छे के लिए प्रभावित करने का काम करते हैं। तिब्बती बौद्धों का मानना है कि जब दुनिया में अराजकता बहुत बढ़ जाती है, तो इस विशेष भूमि का 25वां शासक पृथ्वी को बेहतर युग की ओर ले जाने के लिए प्रकट होगा।

Trijata Aghori
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Mission
Religious, Moral & Spiritual Growth
कालमुख संप्रदाय के लोग प्रकृति के संग चलना पसंद करते हैं। इस संप्रदाय अपने जीवन शैली को पूर्णता साधारण तौर पर जीना पसंद करते हे इस संप्रदाय के अघोरी लग भग पृथ्वी पर ६३ बचे हुए हे इनका लक्ष्य असंभव को सम्भव करना हे । ये लोग पृथ्वी के संतुलन में एक खोजी रूप में अपने कार्य को कर रहे हे ना ही इनके लिए प्रकृति का कोई भी मौसम लागू होता हे आप शिव महापुराण या स्कंद पुराण का अध्ययन करेंगे तो देखेंगे इस संप्रदाय के १८ अवतार का उल्लेख पृथ्वी का साथ निर्माण और विनाश का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलेगा ये लोग अल्प हारि होते हे और बहुत जिद्दी साथ मे चरम पंथी होते हे किंतु इनका दिल बहुत ही नरम और जीवन हसमुख होता हे ये अपने उद्देश्य को पृथ्वी के अंतिम दिनों में लक्ष्य के साथ पूर्ण करेंगे कुछ चीजे उल्लेख नि किया जा सकता इसके पीछे कुछ वास्तविकता पर्दे के पीछे रखकर आगे की और चलना चाहिए इस संप्रदाय के ६३ अस्त्र अपने समय के अनुसार कार्य में अग्रसर है।।
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